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________________ २७६] [श्री महावीर वचनामृत विनीत शिष्य आचार्य के मनोगत-भावों को जानकर अथवा उनके वचन सुनकर अपने वचनो द्वारा उनको स्वीकृत करे और कार्य द्वारा उसका आचरण करे। वित्तं अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोइए । जहोवइटुं सुकयं, किच्चाई कुन्बई सया ।।२शा [उत्त० अ० १, गा० ४४ ] विनीत शिष्य गुरु द्वारा प्रेरणा दिवे विना भी कार्य में सदा प्रवृत्त रहता है और गुरु द्वारा व्यवस्थित रूप से प्रेरित किया गया हो तो वह कार्य शीघ्र सम्पादित करता है। अधिक क्या ? गुरु के उपदेशानुसार वह सभी कार्य उत्तम प्रकार से करता है। न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । सुयलामे न मज्जेज्जा, जच्चा तबस्ति बुद्धिए ॥२६॥ [दश म०८, गा०३०] विनीत गिन्य किसी भी व्यक्ति का तिरस्कार न करे और न आत्म-प्रशसा ही करे । इस तरह वह शान्वज्ञान, जाति, तप अथवा बुद्धि का अभिमान भी न करे। भासमाणो न भासेज्जा, णेव वंफेज मम्मयं । मातिहाणं विवज्जज्जा, अणुचिन्तिय वियागरे ॥२७॥ [सु. १, म६, गा० २५] वह (विनीत गिप्य दूसरे व बोलते हो तब बीच में न बोले,
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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