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विनय (गुरु सेवा)]
[२७ ____ अविनयी के ज्ञानादिगुण नष्ट हो जाते हैं और विनयी को ज्ञानादिगुणो की सम्प्राप्ति होती है। इन दो वातो को जिसने बराबर जान लिया है, वही सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
अह पंचहि ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्मा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य ॥२१॥
[उत्त० अ० ११, गा०३] (१) अभिमान, (२) क्रोध, (३) प्रमाद, (४) रोग और (५) आलस्य इन पाँच कारणो से शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती।
अह अहहिं ठाणेहि, सिक्खासीलि त्ति वुचई । अहस्सिरे सया दन्ते, न य मम्ममुदाहरे ॥२२॥ नासीले न विसीले वि, न सिया अइलोलुए। अकोहणं सच्चरए, सिक्खासीले त्ति बुचई ॥२३॥
[ उत्त० अ० ११, गा० ४-५ ] निम्नाकित आठ कारणो से साधु शिक्षाशील कहलाता है :(१) वह बार-बार हँसनेवाला न हो, (२) निरन्तर इन्द्रियों को वश मे रखनेवाला हो, (३) दूसरो के मर्म को कहनेवाला न हो, (४) शीलरहित न हो, (५) शीलको पुनः पुनः अतिचार लगानेवाला न हो, (६) खाने-पीने मे लोलुप न हो, (७) शान्तवृत्तिवाला हो और (८) सत्यपरायण हो।
मणोगयं वक्तगयं, जाणित्तायरियस्स उ। तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥२४॥
[उत्त० अ० १, गा० ४३]