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________________ २७४ ] [ श्री महावीर वचनामृत अभिक्खणं कोही हवs, पवन्धं च पकुव्वई | मेत्तिजमाणो वमइ, सुयं लडूण मज्जई ॥१७॥ अवि पावपरिक्खेवो, अवि मित्सु कुप्पई | सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ॥ १८ ॥ पड़ण्णवाई दुहिले, थद्धं बुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते, अविणीए ति बुच्चई ॥ १६ ॥ [ उत्त० अ० ११, गा० ६ से ६ ] यहाँ वर्णित चौदह स्थानों मे वर्तन करनेवाला साघु अविनीत कहलाता है और वह निर्वाण प्राप्त नही कर सकता - ( १ ) जो शिष्य वार-चार क्रोध करता हो, (२) जिसका क्रोव शीघ्रता से शान्त न होता हो, (३) जो मैत्री भावना को छोडनेवाला हो, (४) विद्या प्राप्त करके अभिमान करनेवाला हो, (५) किसी प्रकार की त्रुटि हो जाने पर हितशिक्षक आचार्यादि का तिरस्कार करनेवाला हो, (६) मित्रो पर भी क्रोध करनेवाला हो, (७) अत्यन्त प्रिय मित्र की भी पीठ पीछे निन्दा करनेवाला हो, (८) असम्बद्ध प्रलापकारी हो, (६) द्रोही हो, (१०) अभिमानी हो, (११) रसादि मे आसक्त हो, (१२) इन्द्रियों को वश मे नही रखनेवाला हो, (१३) असंविभागी हो अर्थात् साघमिकों को आमन्त्रित किये विना ही खान-पान को अकेला ही भोगनेवाला हो और (१४) अप्रीतिकारक हो । विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छड़ ||२०|| [देश० भ० ६, उ०२, गा० २१ ]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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