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________________ विनय (गुर-सेवा) [२७३ निम्नाकित पन्द्रह स्थानो में वर्तन करता हुआ साधु सुविनीत कहलाता है : (१) वह नम्रवृत्तिवाला हो, (२) चपलता-रहित हो, (३) शठतारहित हो, (४) कुतूहल-रहित हो, (५) किसी का अपमान करनेवाला न हो, (६) जिसका क्रोध अधिक समय तक न टिकता हो, (७) जो मित्रता निभानेवाला हो, (८) जो विद्या प्राप्त कर अभिमान करनेवाला न हो, (६) अपने से त्रुटि हो जाने पर हितशिक्षा देनेवाले आचार्यादि का तिरस्कार करनेवाला न हो, (१०) मित्रों के प्रति क्रोध करनेवाला न हो, (११) अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछेप्रशसा करता हो, (१२) झगडा-टटा अथवा किसी प्रकार का कलह करनेवाला न हो, (१३) बुद्धिमान् हो, (१४) कुलीन हो और (१५) आँख की शर्म रखनेवाला तथा स्थिर-वृत्तिवाला हो। आणानिदेसकरे, गुरूणमणुववायकारए । पडणीए असंयुद्ध, अविणीए त्ति वुचई ॥१॥ [उत्त० अ० १, गा०३] जो शिष्य गुरु की आज्ञा पालन करनेवाला न हो, गुरु के निकट रहनेवाला न हो (गुरुकुलवासी न हो), गुरु के मनोभाव के प्रतिकूल वर्तन करनेवाला हो तथा तत्त्वज्ञान से रहित हो वह अविनीत कहलाता है। अह चोद्दसहि ठाणहिं, वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ, निव्वाणंच न गच्छइ ॥१६॥
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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