________________
২৩ ]
[श्री महावीर-वचनामृत को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्त ज्ञानी हो जाने पर भी अपने आचार्य की ( गुरु की ) विनयपूर्वक सेवा करे। जस्सन्तिए धम्मपयाइ सिक्खे,
तस्सन्तिए वेणइयं पउंजे । सक्कारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो ! मणसा य निच्चं ॥६॥
[दशः अ० ६, उ० १, गा० १२] शिष्य का यह परम कर्तव्य है कि जिस गुरु के पास उसने धर्मपदों की शिक्षा ग्रहण की हो अर्थात् धर्मज्ञान प्राप्त किया हो, उनका श्रद्धासिक्त मन से आदर करे, (वचन से सत्कार करे) और काया से दोनों हाथ जोडकर शिर से प्रणाम करे। इस प्रकार सदा मन, वचन और काया से उनके प्रति विनय प्रदर्शित करे । थंभा व कोहा व मयप्पमाया,
गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो,
फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥७॥
[दश० म०६, उ० १, गा० १] जो शिष्य अभिमानवश, क्रोधवश, मद या प्रमादवश गुरु के पास रहकर भी विनय नही सीखता, अर्थात् उनके प्रति विनय से व्यवहार नहीं करता, उसका यह अविनयी वतन वाँस के फल की तरह विनाश का कारण बनता है।