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विनय (गुरु-सेवा)]
[२६E __ इसी प्रकार धर्मरूपी वृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम परिणाम मोक्ष है। विनय से ही मनुष्य कीर्ति, श्रुतज्ञान और महापुरुषो की प्रशसा आदि पूर्ण रूप से प्राप्त करता है।
जहा सूई ससुत्ता, पडिआ वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥३॥
[उत्त० भ० २६, गा० ५६ ] जैसे धागा (सूता ) पिरोई हुई सुई के गिर जाने पर भी वह खो नही जाती, ठीक वैसे ही (विनय-पूर्वक ) श्रुतज्ञान की प्राप्ति करनेवाला जीव चार गतिरूपी संसार में परिभ्रमण नही करता। सुस्सूसमाणो उवासेन्जा, सुप्पन्नं सुतवस्यियं ॥४॥
[सू० श्रु० १, ४०६, गा० ३३ ] मोक्षार्थी पुरुष को चाहिये कि वह प्रज्ञावान् और तपस्वी ऐसे गुरु की सेवा-सुश्रूषापूर्वक उपासना करे। जहाहिअग्गी जलणं नमसे,
___ नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरियं उवचिट्ठइजा,
अणंतनाणोवगओ वि संतो॥॥
[दश० अ० ६, उ० १, गा० ११ ] जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण भिन्न-भिन्न प्रकार के (घृत, मधु आदि) पदार्थों की आहुति से तथा वेदमन्त्रो द्वारा अभिषिक्त ऐसी होमामि