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________________ विनय (गुरु-सेवा)] [२७१ विवेचन-बांस के फल आते है तब बाँस फट जाता है। उसी प्रकार जो शिष्य गुरु के साथ अविनय से व्यवहार करता है, उसका सर्वप्रकार से अधःपतन होता है। विणय पि जो उवाएण, चोइओ कुप्पई नरो। दिवं सो सिरिमिज्जंति, दण्डेण पडिसेहए ॥८॥ [दश० भ० ६, उ० २, गा० ४ ] कोई उपकारी महापुरुष सुन्दर शिक्षा देकर विनय मार्ग पर चलने की प्रेरणा करे, तब जो मनुष्य उस पर क्रोध करता है (और उसके द्वारा प्रदत्त शिक्षा का अनादर करता है) वह स्वय अपने घर आयी दिव्य लक्ष्मी को डण्डा उठाकर हॉक देता है~भगा देता है। जे आयरियउवज्झायाणं, सुस्यूसावयणंकरे। तेसिं सिक्खा पवति, जलसित्ता इव पायवा ।।।। [दश० अ० ६, उ० २, गा० १२ ] जो शिष्य आचार्य और उपाध्याय की सेवा करता है तथा उनके कयनानुसार चलता है, अर्थात् उनकी आज्ञा का सदा पालन करता है, उसकी शिक्षा खूब अच्छी तरह जल से सिश्चित वृक्ष के समान सदतर बढती जाती है। विवेचन--शिक्षा दो प्रकार की है :-(१) ग्रहण और (२) आसेवना । शास्त्रज्ञान सम्पादन करने को ग्रहण-शिक्षा कहते
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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