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________________ [२६३ सयम की आराधना] जो ससार से विरक्त है, जो आत्मशुद्धि के लिये तत्पर है, जो क्रोध, लोभ आदि दुष्ट मानसिक वृत्तियो को दूर करनेवाले है, वे प्राणियो की हिसा कभी नहीं करते। जो पापो से निवृत्त हो गये हैं और जो शान्ति को धारण करते है, वे ही सच्चे वीर है। जया या चयइ धम्मं, अणजो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नाववुज्झई ॥१७॥ [दश० चू० १, गा० १] जव कोई अनार्य पुरुष केवल भोग की इच्छा से अपने चिरसश्चित संयमधर्म को छोड़ देता है, तब वह भोगासक्त अज्ञानी अपने भविष्य का जरा भी विचार नहीं करता। जया य पूडमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो ॥१८॥ [दश० चू० १, गा०४] मनुष्य जब सयमी होता है, तब पूज्य बनता है, परन्तु सयम से भ्रष्ट होता है, तो अपूज्य बन जाता है। जं मयं सबसाहणं, तं मयं सल्लगत्तणं । साहइत्ताण तं तिण्णा, देवा वा अभविंसु ते ॥१६॥ . [सू० श्रु० १, भ० १५, गा० २४] सर्वसाधुओ द्वारा मान्य ऐसा जो संयमधर्म है, वह पाप का नाश करनेवाला है। इसी सयम धर्म की आराधना कर अनेक जीव संसारसागर से पार हुए है और अनेक जीवों ने देवयोनि प्राप्त की है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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