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[श्री महावीर-वचनामृत जैसे प्रज्वलित अग्निशिखा का पान करना अति दुष्कर है, वैसे ही तरुणावस्था मे श्रमणत्व का पालन करना अति दुष्कर है।
जहा दुक्खं भरेउं जे, होइ वायस्स कोत्थलो । तहा दुक्खं करेउंजे, कीवेणं समणत्तणं ॥१३॥
[उत्त० म० १६, गा०४०] जिस तरह कपडे के थैले को वायु से भरना कठिन है, उसी तरह कायर (पुरुष) के लिये श्रमणत्व का-सयम का पालन करना कठिन है।
जहा भुयाहिं तरिउ, दुक्करं रयणायरो । तहा अणुवसन्तेणं, दुकरं दमसागरो ॥१४॥
[उत्त० अ० १६, गा० ४२] जैसे भुजाओं से समुद्र को तैर कर पार करना अति कठिन है वैसे ही अनुपशान्त आत्मा द्वारा सयमरूपी समुद्र को पार करना अति कठिन है। इह लोए निप्पिवासस्स,
नत्थि किंचि वि दुक्करं ॥१५॥
[उत्त० अ० १६, गा० ४४] इस लोक मे जो तृष्णारहित है, उसके लिये कुछ भी कठिन नही है। विरया वीरा समुट्ठिया, कोहकोयरियाइपीसणा। पाणे ण हणंति सबसो, पावाओ विरयाऽभिनिवुडा ॥१६॥
[सू० अ० १, अ० २, उ० १, गा० १२]