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________________ संयम की आराधना] [२५६ इस लोक मे उसको ही प्रतिबुद्धजीवी-सदा जागृत रहनेवाला कहा जाता है-जो सयमी जीवन व्यतीत करता है। गारत्थेहि य सम्वेहि, साहवो संजमुत्तरा ॥४॥ [उत्त० अ०५, गा० २०] सर्व गृहस्थो की अपेक्षा साधु सयम में श्रेष्ठ होते है। तात्पर्य यह कि गृहस्थ चाहे जितने व्रत और नियमों का पालन करते हों, किन्तु सयम के विषय में वे साधु की समानता नही कर सकते। तहेव हिंसं अलियं, चोज्ज अबम्भसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च, संजओ परिवज्जए ॥॥ [उत्त० अ० ३५, गा०३] सयमी पुरुष सदा हिसा, भूल, चोरी, अब्रह्मसेवन, भोगलिप्सा तथा लोभ का परित्याग करे। अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिचए । चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठी तत्थ हियासए ॥६॥ [सू० श्रु० १, म०६, गा० ३० ] उदारभोगो के प्रति अनासक्त रहता हुआ मुमुक्षु यत्नपूर्वक सयम मे रमण करे, धर्मचर्या मे अप्रमादी बने और विपत्ति आ जाने पर अदीन भाव से उसे सहन करे। अणुसोअपहिए बहुजणम्मि, पडिसोयलद्धलक्खेणं।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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