________________
धारा : २१:
संयम की आराधना __ एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥१॥
[उत्त० भ० ३१, गा० २] साधक एक वस्तु की विरति करे और एक वस्तु का प्रवर्तन करे । वह असंयम की निवृत्ति करे और सयम का प्रवर्तन करे।
जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए । तस्स वि संजमो सेयो, अदिन्तस्स वि किंचण ॥२॥
[उत्त० अ० ६, गा० ४०] एक मनुष्य प्रति मास दस लाख गायों का दान करता हो और दूसरा मनुष्य कुछ भी नही करते हुए केवल सयम की आराधना करता हो, तो उस दान की अपेक्षा इसका यह सयम श्रेष्ठ है। तात्पर्य यह । है कि अपने पास सम्पत्ति हो, तो दान देना सरल बात है, किन्तु अपनी आत्मा पर अनुशासन करना यह सरल वात नही है । तमाहु लोए पडिवुद्धजीवी, सो जीयइ संजमजीविएणं ॥३॥
[दा० चू०२, गा० १५]