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भिक्षाचरी]
[२४१ घोन, छाछ, जौ का पानी, केर का पानी आदि पान कहलाते हैं। सुभक्ष्य पदार्थ जैसे कि भुने हुए घान्य, पोहे, बादाम, (द्राक्ष) दाख, सूखा मेवा आदि खादिम कहलाते है, और स्वाद लेने योग्य जैसे कि चूर्ण की गोली, हरॆ आदि स्वादिम पदार्थ कहलाते है।
न य भोयणम्मि गिद्धो, चरे उंछं अयंपिरो । अफासुयं न भुंजिजा, कीयमुद्देसियाहडं ॥३७॥
[दश० भ०८, गा० २३] साधु भोजन मे आसक्त हुए बिना गरीब तथा धनवान् सभी दाताओ के यहाँ भिक्षा के लिये जावे। वहाँ अप्रासुक अर्थात् सचित्त वस्तु, क्रीत अर्थात् साधु के लिये ही खरीद कर लाई गई वस्तु, औद्देशिक अर्थात् साधु का उद्देश्य रख कर बनवाई गई वस्तु तथा आहृत अर्थात् सामने लायी हुई वस्तु ग्रहण न करे। भूल से ग्रहण कर ली गई हो तो उसका भोग न करे ।
बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज्ज परो न वा॥३८॥
[दश० अ०५, उ० २, गा० २७ ] गृहस्थ के घर में खाद्य और स्वाद्य अनेक प्रकार के पदार्थ होते हैं, परन्तु वह न देवे तो बुद्धिमान् साधु उस पर क्रोध न करे। वह ऐसा विचार करे कि देना या नही देना, यह उसकी इच्छा की बात है।'
निट्ठाणं रसनिज्जलं, भद्दगं पावगं ति वा। पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा, लाभालाभं न निद्दिसे ॥३६॥
[ दशः १०८, गा० २२]