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________________ भिक्षाचरी ] [ २३६ दूसरे का अभिप्राय भी जान ले । तात्पर्य यह है कि दोनों की इच्छा हो तभी उनके पास से आहार -पानी ग्रहण करे । गुन्विणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोयणं । भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ||३०|| [ दश० अ०५, ३०१, गा० ३९] गर्भवती स्त्री के लिये बनी विविध प्रकार की भोज्य सामग्री यदि वह खा रही हो तो भिक्षार्थी साधु उसे ग्रहण न करे । उसके खा लेने के पश्चात् यदि अवशिष्ट रहे तो उसे ग्रहण करे । सिया य समणट्ठाए, गुन्विणी कालमासिणी । उडिआ वा निसीइजा, निसन्ना वा पुणुट्ठए ॥३१॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पर तारिसं ||३२|| [ दश० भ०५, उ०१, गा० ४०-४१] जिसका नौवां महीना चल रहा है ऐसी गर्भवती स्त्री कदाचित् खडी हो और साधु को आहार- पानी देने के लिये नीचे बैठे अथवा पहले बैठी हुई हो और बाद मे उठना पडे तो वह आहार- पानी साघु के लिये अकल्पनीय बन जाता है। ऐसे प्रसग पर भिक्षा देनेवाली महिला से साधु यो निषेध करे कि - इस प्रकार की भिक्षा ग्रहण करना मेरे लिये उचित नही है । थणगं पिज्जेमाणी, दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्तु रोयंतं, आहरे पाणभोयणं ॥ ३३ ॥
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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