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[श्री महावीर-वचनामृत तत्य से चिट्टमाणस्स, आहरे पाणभोयणं ।। अकप्पियं न गेहिब्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥२७॥
[दा न० ५, उ० १, गा० २७] वहाँ (गृहस्य के घर) मर्यादित भूमि में खड़े हुए सावु को गृहस्थ आहार-पानी देवे। वह क्ल्पनीय हो तो साघु उसे ग्रहण करे और अकल्पनीय हो तो ग्रहण न करे।
विवेचन सावु के आचार अनुसार जो वस्तु ग्रहण की जा सके उसे क्ल्प नीय और न ली जा सके उसे अकल्पनीय कहते हैं।
नाइउच्चे नाइनीए, नासन्ने नाइदूरओ। फासुयं परकडं पिण्डं, पडिगाहेज्ज संजए ॥२८॥
[उत्तः अ० १, गा० ३४] दाता से ज्यादा ऊपर नहीं, ज्यादा नीचे भी नही अथवा ज्यादा पास नही और ज्यादा दूर भी नहीं यों खड़ा रहकर भिक्षार्थी सावु प्रानुक अर्थात् अचित्त और परकृत अर्यात दूसरे के निमित्त दना हुआ आहार ग्रहण करे। दुहं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्य निमंतए । दिजमाणं न इच्छिजा, छंदं से पडिलेहए ।। २६ ।।
[दशः स०५, १० १, गा० ३८] गृहल्य के घर मे यदि दो व्यक्ति भोजन कर रहे हों और उनमे से एक व्यक्ति निमन्त्रण दे तो सावु.उसे लेने की इच्छा न करे।