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________________ भिक्षाचरी] [२३७. ___ गृहस्थ के घर से ( भोजनालय से ) अति दूर नही और अति निकट भी नही, तथा अन्य श्रमणो की नजर पड़े ऐसे भी नहीं, इस तरह साधु को भिक्षा के लिए खडा रहना चाहिये। वह किसी का भी उल्लघन कर आगे बढे नही। अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गओ मुणी । कुलस्स भूमि जाणित्ता, मियं भूमि परिकमे ॥२४॥ [दश० अ०५, उ० १, गा० २४ ] गोचरी के लिए गया हुआ साधु, जिस परिवार का जैसा आचार हो वही तक परिमित भूमि मे गमन करे। नियत सीमा के भीतर गमन नही करे। दगमट्टियआयाणे, बीयाणि हरियाणि य । परिवज्जंतो चिट्ठिज्जा, सविंदियसमाहिए ॥२॥ [दश० अ० ५, उ० १, गा० २६] सब इन्द्रियों को वश मे रखनेवाला समाधिशील मुनि जहाँ पानी और मिट्टी लाने का मार्ग हो, बीज पडे हो अथवा हरी वनस्पति हो, ऐसे स्थान को छोडकर खडा रहे। पविसित्त परागारं, पाणट्ठा भोयणस्स वा । जयं चिट्ठ मियं भासे, न य रूवेसु मणं करे ॥२६॥ [दश० म०८, गा० १६ ] साघु पानी अथवा भोजन के लिए गृहस्य के घर में प्रवेश करके यतनापूर्वक खडा रहे, थोड़ा बोले और स्त्रियों के सौन्दर्य की ओर आकृष्ट हो उसका विचार न करे।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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