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________________ २३६] [श्री महावीर-वचनामृत महुकारसमा वुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिण्डरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥२०॥ [दश० अ० १, गा०५] भ्रमर के समान सुचतुर मुनि अनासक्त तथा हर किसी प्रकार के भोजन मे सन्तुष्ट रहने का अभ्यासी होने से अपनी इन्द्रियों पर काबू 'पाने का आदी होता है और इसीलिए वह साधु कहलाता है। अदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीइज्ज पंडिए । अमुच्छियो भायणमि, मायण्णे एसणारए ॥२१॥ [दश० भ० ५, उ० २, गा० २६] निर्दोष भिक्षा ग्रहण की गवेषणा करने मे रत और आहार की। मर्यादा को माननेवाला पण्डित साधु भोजन के प्रति अनासक्ति भाव रखे और दीन भावना को छोडकर भिक्षावृत्ति करे। ऐसा करते हुए यदि कभी मिक्षा न मिले तो किसी प्रकार का दुःख अनुभव न करे। समरेसु अगारेसु, संधी य महापहे । एगो एगिथिए सद्धि, नेव चिट्ठ न संलवे ॥२२॥ [उत्त० अ० १, गा० २६] लुहार-शाला, सूना घर, दो घरों के बीच की गली और राज-मार्ग मे अकेला साघु अकेली नारी के साथ खड़ा न रहे और बातचीत न करे। नाइद्रमणासन्ने, नन्नेसिं चक्खुफासओ। एगो चिटेज भत्तट्टा, लंधित्ता तं नइक्कमे ॥२३॥ [उत्त० अ० १, गा० ३३]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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