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________________ अष्ट-प्रवचनमाता] [ २२७ संयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ मे प्रवृत्त होती वाणी पर सावधानी पूर्वक नियन्त्रण करे। ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे ।। उल्लंघणपल्लंघणे, इंदियाण य झुंजणे ॥३२॥ _[उत्त० अ० २४, गा० २४] सयमी पुरुष खडा रहने मे, बैठने मे, सोने मे उल्लघन-प्रलघन करने मे तथा इन्द्रियो के प्रयोग मे सदा काया का नियन्त्रण करे। संरंभसमारंभे, आरंभे तहेव य । कायं पचत्तमाणं तु, नियत्तिज जयं जई ॥३३॥ [उत्त० अ० २४, गा० २५ ] संयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ मे प्रवृत्त होती काया को सावधानी से नियन्त्रण करे। मणगुत्तयाए णं भंते ! जोवे कि जणयई ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयई, एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्त संजमाराहए भवइ ॥३४॥ [उत्त० १० २६, गा.५३ ] प्रश्न-हे भगवन् ! मनोगुप्ति से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! मनोगुप्ति से जीव एकापनित्त प्राता है और एकागचित्तपाला मनोगुत जीव राणम का गान तोा।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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