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________________ २२८] [श्री महावीर वचनामृत वयगुत्तयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? वयगुत्तयाए णं निन्निकारत्तं जणयइ, निचिकारे णं जीवे वगुत्ते अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते यावि भवड्॥३५॥ [उत्तः भ० २६, गा० ५४ ] प्रश्न- हे भगवन् ! वचनगुप्ति से जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-हे निष्य ! वचनगुप्ति से जीव निर्विकार भाव को उत्पन्न करता है। और इसी निर्विकार भाव से वचनगुप्त जीव अव्यात्मयोगसावन से युक्त होता है। कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयह ? कायगुत्तयाए संवरं जणयइ, संवरेणं [णं जीवे] कायगुत्ते पुणो पावासवनिराहं करेइ ॥३६॥ उत्त. न. २६, गा: ५५] प्रश्न हे भगवन् ! कायगृप्ति से जीव क्या उपार्जित करता है ? उत्तर-हे शिष्य ! कायगुप्ति से जीव संवर उत्पन्न करता है और सवर से कायगुप्त वना हुआ जीव पापात्रव का निरोव करता है। एयाओ पंचसमिईओ, चरणस्स य पवत्तण । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्येमु सन्चसो ॥३७॥ [दगः १०२४, गा.२६] इस तरह के पांच समितियां चारित्र को प्रवृत्ति के लिये है और तोन गुप्तिनां सर्व प्रकार की अनुमत्रवृत्तियों को रोकने के लिये है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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