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[श्री महावीर-वचनामृत अव्यवस्थित रखता है और प्रतिलेखना मे पूर्ण सावधानी नही रखता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
धुवं च पडिलेहिज्जा, जोगसा पायकवलं । सिज्जमुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवासणं ॥१७॥
[दश० अ० ८, गा० १७] साधु को चाहिये कि वह नियमित रूप से यथासमय पात्र, कम्बल, शय्या स्थान, उच्चारभूमि ( मलविसर्जन का स्थान), सस्तारक और आसन आदि की सावधानीपूर्वक प्रतिलेखना करे।
पुढवी-आउक्काए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥१८॥
[उत्त० अ० २६, गा० ३०] प्रतिलेखना मे प्रमाद करनेवाला साधु पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय इन छहों कायों का विरावक होता है।
पुडवी-आउक्काए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणाआउत्तो, छण्हं संरक्खओ होइ ॥१६॥
[उत्त० अ० २६, गा० ३१] प्रतिलेखना मे जो सावधान रहनेवाला साघु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा सकाय इन छहों कार्यों का संरक्षक होता है।