SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२] [श्री महावीर-वचनामृत अव्यवस्थित रखता है और प्रतिलेखना मे पूर्ण सावधानी नही रखता है, वह पापश्रमण कहलाता है। धुवं च पडिलेहिज्जा, जोगसा पायकवलं । सिज्जमुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवासणं ॥१७॥ [दश० अ० ८, गा० १७] साधु को चाहिये कि वह नियमित रूप से यथासमय पात्र, कम्बल, शय्या स्थान, उच्चारभूमि ( मलविसर्जन का स्थान), सस्तारक और आसन आदि की सावधानीपूर्वक प्रतिलेखना करे। पुढवी-आउक्काए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥१८॥ [उत्त० अ० २६, गा० ३०] प्रतिलेखना मे प्रमाद करनेवाला साधु पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय इन छहों कायों का विरावक होता है। पुडवी-आउक्काए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणाआउत्तो, छण्हं संरक्खओ होइ ॥१६॥ [उत्त० अ० २६, गा० ३१] प्रतिलेखना मे जो सावधान रहनेवाला साघु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा सकाय इन छहों कार्यों का संरक्षक होता है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy