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अष्ट-प्रवचनमाता]
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पात्र आदि ओघोपधि कहलाते है और सस्तारक (शय्या) आदि ओपग्रहिक उपधि कहलाते है। इन दोनो प्रकार की उपधियो को ग्रहण करते समय तथा स्थापित करते समय मुनि को इस विधि का पालन करना चाहिये ,
चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई। आइए निक्खियेज्जा वा, दुहओ वि समिए सया॥१४॥
[उत्त० अ० २४, गा० १-१४ ] यतनावान् साधु आँख से देखकर दोनो प्रकार की उपधि को प्रमार्जना करे तथा उपधि को उठाने से पर्व और रखते समय इस समिति का सदा पूरी तरह से पालन करे।
संथारं फलगं पीढं, निसिज्जं पायकम्पलं । अप्पमज्जियमारुहई, पावसमणित्ति वुच्चई ।।१।।
[उत्त० अ० १७, गा०७] जो साधु सस्तारक ( शय्या), फलक, पीठ, पादपोछन और स्वाध्यायभूमि, इन पाचो का प्रमार्जन किये बिना ही बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
पडिलेहेइ पमत्ते, अवउज्झइ पायकम्बलं । - पडिलेहा अणाउत्ते, पावसमणित्ति वुच्चइ ।।
[उत्त० अ० १७, गा०६] जो ( साधु ) प्रतिलेखना मे प्रमाद करता है, पात्र-कम्बल आदि