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________________ २२०] [श्री महावीर-वचनामृत एषणासमिति के तीन भेद हैं-गवेषणा, ग्रहणपणा और परिमोगैषणा । आहार, उपधि और शय्या के समय इन तीनों के बारे में पूरी शुद्धि रखनी चाहिए। उग्गमुप्पायणं पठमे, बीए सोहेज एसणं । परिभोयम्मि चउक्कं, विसोहेज जयं जई ॥१२॥ यतनावान् साधु प्रथम एषणा में उद्गम-उत्पादन दोष की शुद्धि करे, दूसरी एषणा मे गङ्कितादि दोषो की शुद्धि करे और तीसरी परिभोगपणा मे सयोजना, मोह, कारण और प्रमाण-इन चारो दोषों की शुद्धि करे। विवेचन--गवेषणा करते समय सोलह उद्गम के और सोलह उत्पादन के-कुल मिलाकर ३२दोष टालने पड़ते हैं। जबकि ग्रहण करते समय गद्धितादि १० दोष । इस प्रकार कुल ४२ दोष टालकर आहारादि को ऐषणा करनी चाहिये। इन ४२ दोषों का विस्तार से वर्णन पिण्डनियुक्ति मे किया गया है। परिभोग करते समय सयोजना, मोह, कारण और प्रमाणादि चारों को निर्दोपता के बारे में पूरा निर्णय कर लेना चाहिये। सक्षेप में सावु को अपनी आजीविका के लिये आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, ओषचि, नय्या आदि जो कुछ भी प्राप्त करना-उपभोग करना आवश्यक रहता है, वह सब शास्त्रप्रदर्शित विधिपूर्वक प्राप्त करने-उपयोग करने से इस समिति का पालन हुआ ऐसा माना जाता है। ओहोवहोवग्गहियं, भंडगं दुविहं मुणी। ' गिण्हंतो निक्खिवंतो वा, पउंजेज्ज इयं विहिं ॥१३॥
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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