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________________ २१२ [श्री महावीर वचनामृत तत्थ मन्दा विसीयन्ति, वाहच्छिन्ना व गभा । पिट्ठओ परिसप्पन्ति, पिट्ठसप्पी व संभमे ॥५॥ [सू० श्रुः १, भ० ३, उ० ४, गा०५] मन्द पराक्रमी पुरुष सचित्त जल धान्यादि के परिभोग के लोभ मे भार उठाकर थके हुए गधे के समान सयम मे निथिल बनते हैं और सभ्रम से भग्न मतिवाले होकर जीवन के हर क्षेत्र मे पिछड़ गये लोगो की तरह संयमियों की श्रेणी मे पीछे रह जाते हैं। तं च भिक्खू परिन्नाय, सम्वे संगा महासवा । जीवियं नावकंखिज्जा, सोच्चा धम्ममणुत्तरं ॥५६॥ [सूः भू० १, अ० ३, उ० २, गा० १३] श्रेष्ठधर्म का श्रवण कर तथा संसार के सव रिश्ते और सम्बन्वो को कर्म-बन्धन का महा प्रवेशद्वार समझकर भिक्षु असयमी अथवा गृहस्थ-जीवन की इच्छा न करे। विजहित्तु पुबसंजोयं, न सिहं कहिंचि कुवेज्जा । असिणेहसिणेहकरेहि, दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्ख ॥५७|| [उत्त० म०८, गा०२] .. पूर्व सयोगो को छोड़ देने के पश्चात् भिक्षु पुनः किसी भी वस्तु के प्रति स्नेह न करे-मोह न रखे । स्नेह करनेवालों के बीच जो
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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