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साधु का आचरण ]
[२०५. अपने संयमरूपी यश का संरक्षक भिक्षु सर्वज्ञ की साक्षी मे सदा परित्यक्त ऐसी सुरा, मदिरा तथा मद उत्पन्न करनेवाले अन्य किसी भी रस का पान न करे।
पियए एगओ तेणो, न मे कोइ वियाणइ । तस्स पस्सह दोसाई, नियडिं च सुणेह मे ॥३४॥
[दश० भ० ५, उ० २, गा० ३७ ] "मुझे कोई नही देखता है" ऐसा मानकर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला चोर साधु एकान्त मे गुप्तरूप से मदिरापान करता है। उसके दोषो को देखो। साथ ही उसके मायाचार का जो मै वर्णन करता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो
वडइ सुंडिया तस्स, माया मोसं च भिक्खुणो । - अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया ॥३॥
[दश० भ० ५, उ० २, गा० ३८] मदिरापान करनेवाले साधु मे आसक्ति, माया, मृषावाद, अपयश, अतृप्ति आदि दोष बढते ही रहते हैं। साथ ही साथ उसकी असाधुता भी सतत बढती ही रहती है।
आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्थावि णं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥३६॥
[दश० अ० ५, उ० २, गा० ४०] मदिरापान करनेवाला विचारमूढ साधु न तो आचार्य की सेवा कर सकता है और न ही साधुओ की। यह साधु तो मदिरा पीता