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साधु का आचरण]
[२१३ निःस्नेही-निर्मोही बना रहता है, वह सभी प्रकार के दोष-प्रदोषो से मुक्त हो जाता है।
अत्थं गयंमि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गये । आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ॥५८॥
[दश० म०८, गा० २८] संयमी पुरुष को सूर्यास्त होने के पश्चात् और सूर्योदय होने से पूर्व किसी प्रकार के आहार आदि की इच्छा मन मे नही लानी चाहिये।
सन्ति में सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा। जाई राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे॥५६॥
दश० अ० ६, गा० २३] इस धरती पर ऐसे त्रस और स्थावर सूक्ष्म जीव सदैव व्याप्त रहते है, जो रात्रि के अन्धकार मे दीख नही पडते। अतः ऐसे समय में भला आहार की शुद्ध गवेषणा किस प्रकार हो सकती है ?
उदउल्लं बीयसंसत्तं, पाणा निचडिया महि । दिया ताई विवज्जेज्जा, राओ तत्थ कह चरे ?॥६॥
दश० अ०६, गा० २४ ] पानी से जमीन भीगी हो, उसपर बीज गिर गये हो, अथवा चीटी-कथवा--आदि अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव हो, उन सब का वर्जन करके दिन मे तो चला जा सकता है, पर रात्रि मे कुछ दिखाई नही पड़ता । अतः भला किस तरह चला जा सकता है ?