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________________ २०४] [श्री महावीर वचनामृत पानी से कदापि स्नान नहीं करते और जीवन पर्यन्त अस्नान नामक अति कठिन व्रत का पालन करते हैं। सिणाण अदुवा कक्कं, लोद्धं पउमगाणि य । - गायस्सुबट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइ वि ॥३०॥ - [दश० म०६, गा० ६३] 3 सयमी पुरुष स्नान नही करते तथा चन्दन-कल्क-चूर्ण, लोध्र, केशर आदि सुगन्वित- पदार्थों का उपयोग अपने शरीर पर उबटन करने के लिये कभी नहीं करते। विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे, धोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥३१॥ विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मन्नंति तास्सिं । सावजबहुलं चेयं, नेयं ताईहिं सेवियं ॥३२॥ [दश० म० ६, गा० ६५-६६] विभूषा के कारण साधु को चिकने कर्मो का बन्धन होता है, उससे वह घोर दुस्तर संसारसागर मे गिरता है। ज्ञानी पुरुष स्नान को शारीरिक विभूषा और चिकने कर्मबंधन का कारण और बहुत से पापों की उत्पत्ति का हेतु मानते है। अतः छहकाय के जीवो की रक्षा करनेवाले मुनि इसका सेवन कदापि नही करते। - सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मंजगं रसं । --- ससक्खं नं पिवे भिक्ख, जसं सारक्खमप्पणो ॥३३॥ [दरा० अ०५, उ० २, गा० ३६ ]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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