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________________ साधु का आचरण] [२०३ गृहस्य के घर जाकर बैठने से ब्रह्मचर्य की गुप्तियो का यथार्थ पालन नहीं हो सकता ( क्योकि वहां पर सियो के अङ्ग-प्रत्यङ्ग देखने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है) और गृहस्थ की स्त्री के साथ अतिपरिचय होने से दूसरो को मुनि के चरित्र के विषय मे शका करने का अवसर मिल जाता है। इसलिये ऐसी कुशीलता को बढानेवाले स्थान से मुनि दूर रहकर ही उसका त्याग करे। तात्पर्य यह कि वह गृहस्थ के यहाँ जाकर बैठने का सदैव के लिए बद ही कर दे। वाहियो वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । चुक्तो होइ आयारो, जहो हवइ संयमो ॥२७॥ मंतिमे सुहुमा पाणा, घसासु भिलगासु य । जे य भिक्खू सिणायंतो, वियडेणुप्पिलावये ॥२८॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिएण वा । जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिठगा ॥२६॥ दश० अ० ६, गा०६०-६१-६२] रोगी हो या निरोगी, जो साधु स्नान करने की इच्छा करता है वह निश्चय ही आचार से भ्रष्ट होता है, और सयमहीन बनता है। क्षारभूमि अथवा ऐसी ही अन्य भूमियो मे प्रायः सूक्ष्म प्राणी व्याप्त होते हैं। इसलिये साधु प्राशुक-उष्णजल से स्नान करे तो भी उसकी विराधना हुए बिना नही रहती अर्थात् - अवश्य होती है। इसी कारण शुद्ध सयम का पालन करनेवाले साधु ठडे अथवा गरम क्षारभूमि ध प्राशुकत -अवश्य होता है
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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