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साधु का आचरण]
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का दोष लगाने की सम्भावना होती है। अतः साधु के लिये वह कतइ उपयुक्त नही है। ऐसा सोचकर निर्ग्रन्थ मुनि गृहस्थ के वर्तनो मे कभी भोजन नही करते।
विवेचन-खा लेने के पश्चात् सचित्त जल से वर्तन धोना, इसे पश्चात् कर्म और खाने से पूर्व सचित्त जल से वर्तन धोने को पुरःकर्म कहते हैं।
आसंदीपलिअंकेसु, मंचमासालएसु वा। अणायरियमजाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ॥२१॥ नासंदीपलिअंकेसु, न निसिजा न पीढए । निग्गंथाऽपडिलेहाए, वुद्धवुत्तमहिट्ठगा ॥२२॥
[दश० अ० ६, गा०५३-५४ ] “आर्यसाधु अति निर्ग्रन्थ श्रमणो के लिये कुर्सी, पलग, खटिया अथवा आरामकुर्सी आदि पर बैठना अथवा सोना अनाचार माना गया है। सर्वज्ञ का कहा हुआ अनुष्ठानादि में तत्पर निर्ग्रन्य साधु कुर्सी, पलङ्ग आदि तया बेत से भरा हुआ पटिये पर बैठे अथवा सोये नही क्योंकि उसका पडिलेहण बराबर हो सकता नही।
विवेचनपडिलेहण का अर्थ है प्रतिलेखना, सूक्ष्म निरीक्षण । साधुओ को वस्त्र-पात्र आदि को दिन में दो बार प्रतिलेखना करनी पड़ती है। इस वख्त कोई जीव-जन्तु देखने मे आ जाय तो उसे तक. लीफ न पहुंचे इस तरह हटाया जाता है।