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________________ २०० [श्री महावीर-वचनामृत इस प्रकार सतत सावधान और सम्यग्दृष्टिवाला मुनि दुर्लभ श्रमणत्व को प्राप्त करके इन पडनिकाय के जीवों की मन-वचनकाया से किसी प्रकार की विराधना न करे। कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो। भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ॥१८॥ [दश० अ० ६, गा० ५०] जो मुनि गृहस्थ की काँसी आदि घातु की कटोरी और थाली मे तथा मिट्टी के पात्र मे अगन-पान आदि का भोजन करता है, वह अपने आचार से सर्वथा भ्रष्ट हो जाता है। सीओदगसमारं मे, मत्तधोअणछड्डणे । जाई छंनंति भूयाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥१६॥ [दश० अ०६, गा०५१] गृहस्थ वर्तनों को घोते और मांजते हैं, जिसमे सचित्त जल का आरम्भ होता है। ठीक वैसे ही वर्तन घोने के बाद उस गन्दे जल को इधर-उधर फेंक देते हैं, उससे अनेक जीवों की हिंसा होती है। इसलिये गृहस्थो के वर्तनों मे भोजन करने मे ज्ञानियों ने असंयम देखा है। पच्छाकम्मं पुरे क' - सया तत्थ न कप्पइ । एयमद्वं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे ॥२०॥ [दा० अ०६, गा०५२) गृहस्य के वर्तनो में भोजन करने से पश्चात् कर्म और पुरःकम
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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