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________________ साधु का आचरण] [१६६ (४) पनकसूक्ष्म-अर्थात् वर्षा मे लकडी आदि पर रहनेवाले पचवर्णी लील-फूग । (५) उत्तिगसूक्ष्म-अर्थात् चीटियो का स्थान, उदई का घर आदि । (६) बीजसूक्ष्म-अर्थात् सूक्ष्म प्रकार के घान्यादि के बीज। (७) हरित सूक्ष्म - अर्थात् नये उत्पन्न हुए पृथ्वी के समान रग वाले अङ्कर और (८) अण्डसूक्ष्म अर्थात् मक्खी, चीटी आदि के अति सूक्ष्म अण्डे । .. एवमेयाणि जाणित्ता; सवभावेण -- संजए। अप्पमत्तो जए निच्चं, सबिंदियसमाहिए ॥१५॥ -[ दश० म०८, गा०-१६ ]. -- सर्व इन्द्रियो को शान्त रखनेवाला साधु उपर्युक्त आठ प्रकार के सूक्ष्म जीवो को बराबर पहचान कर सदा प्रमादरहित वर्तन करे और तीन करण और तीन योग से सयत बने । तसे पाणे न हिंसिजा, वाया अदुव कम्मुणा। उवरओ सबभूएसु, पासेज्ज विविहं जगं ॥१६॥ [दश० म०८, गा० १२ ] सर्व प्राणियो की हिंसा से विरक्त बना साधु, इस ससार मे छोटेबडे सभी जीवो के जीवन मे कैसी-कैसी विचित्रताएँ व्याप्त हैंइसे विवेकपूर्वक जानकर किसी भी त्रस प्राणी की मन, वचन, और काया से हिंसा न करे। ' 'इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मदिट्ठी सया जए । दुल्लहं लेहित्तु सामण्णं, कम्मुणा न विराहिज्जासि ॥१७॥ , [दशे० ४, गा०६]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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