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[श्री महावीर-वचनामृत ___ मुनि कुज-निकुंजो मे खड़ा न रहे (क्योकि वहाँ वनस्पति का स्पर्ग होना सम्भव है)। इसी प्रकार जहाँ वीज पडे हुए हो अथवा हरी वनस्पति उगी हुई हो वहाँ भी खड़ा न रहे। साथ ही जहाँ अनन्तकाय वनस्पति, दिल्ली के टोप अथवा लील-फूग उगे हुए हो, वहाँ भी खडा न रहे।
अट्ठ सुहुमाई पेहाए, जाई जाणित्तु संजए । दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ठ सएहि वा ॥१२॥
[दश० न०८, गा० १३]. सयमी मुनि (आगे कहे गये ) आठ प्रकार के सूक्ष्मजीवों से परिचित होने के कारण सभी जीवो के प्रति दया का अधिकारी होता है। अतः वह इन सभी जीवो को अच्छी तरह से देख भालकर बैठे, खडा रहे अथवा सोए।
कयराइं अहसुहुमाई ? जाइं पुच्छिज्ज संजए । इमाई ताई मेहावी, आइक्विज विअक्षणो ॥१३॥ सिणहं पुग्फसुहुमं च. पाणुत्तिगं तहेव य । पणगं बीयहरियं च, अंडसुहुमं च अट्ठमं ॥१४॥
. [दशा म ८, गा० १४-१५] जत्र मायु पूछे कि वे आठ जीव कीन से हैं तब वद्धिमान और विचक्षण आचार्य इममा निन्नानुसार वर्णन करते हुए उत्तर दे:(१) स्नेहलूम-अर्यान् अप्काय के नुक्ष्मजीव । (२) पुष्पनूदम-अर्थात् तन्वर्णयुम्प । (३) प्राणिमूक्ष्म-अर्थात् कुंथु आदि मून जन्तु ।