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________________ सामान्य साधु-धर्म] [१६१ निम्ममो निरहंकारी, निस्संगो चत्तगारयो । समो अ सबभूएसु, तसेसु थावरेसु य ॥५०॥ [उत्त० अ० १६, गा० ८६ ] साधु पुरुष ममत्वरहित, अहङ्काररहित, निःसंगी, गौरव का परित्याग करनेवाला और त्रस-स्थावर सभी प्राणियो के प्रति समदृष्टि रखनेवाला होता है। लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु, समो माणावमाणवो ॥५१॥ [उत्त० भ० १६, गा०६०] साघु पुरुष लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशसा और मानापमान आदि हर स्थिति मे समभाव से रहनेवाला होता है। गारवेसु कसाएसु, दंड-सल्ल-भएसु य । नियत्तो हास-सोगाओ, अणियाणो अवंधणो ॥५२॥ [उत्त० अ० १६, गा० ६१] साधु पुरुष (तीन प्रकार के) गारव से, (चार प्रकार के ) कषाय से, (तीन प्रकार के ) दण्ड से, (तीन प्रकार के ) शल्य से, ( सात प्रकार के ) भय-स्थानो से, हास्य से तथा शोक से निवृत्त होता है। वह सयम के फलरूप किसी प्रकार के सासारिक सुखो की इच्छा करता नही, किसी प्रकार के बन्धन में फंसता नही । अणिस्सियो इह लोए, परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥५३॥ [ उत्त० अ० १६, गा०६२]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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