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________________ १६० ] [श्री महावीर-वचनामृत साप पुरुष को चाहिये कि वह निद्रा का विशेष आदर न करे, हंसी-मजाक का त्याग करे, किसी की गुप्त बातों में दिलचस्पी न ले और स्वाध्याय मे सदा मग्न रहे।। अच्चणं रयणं चेव, वन्दणं पूअणं तहा। ड्डीसकारसम्माणं, मणसा वि न पत्थए ॥४८॥ [ उत्त० अ० ३५, गा० १८] साधुपुरुष अर्चना, रचना, वन्दन, पूजन, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी कभी इच्छा न करे । चरे पयाई परिमंकमाणो, ___जं किंचि पामं इह मण्णमाणो। लाभांतरे जीविय बृहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥४६॥ [उत्त० भ० ४, गा०७] माधुपुरुप इस जगत् मे स्त्रो, पुत्र, धन, सम्पत्ति आदि जो कुछ भी मुख की मामग्री है उसे एक प्रकार का जाल या भमान माने ; और कही मेरे चारित्र्य में इनसे दोप न लग जाय, ऐमी शका धारण कर सावधानी ने अपना कदम ऊाये। जहां तक ज्ञानादि का लाभ होता हो वहाँ तक वह जीवन की वृद्धि करे और जब यह गेर नरम-साधना में निपयोगी प्रतीत हो, तब मल के समान जमका त्याग कर दे।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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