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सामान्य साधुधर्म]
[१८७ सुक्कझाणं झियाएजा, अनियाणे अकिंचणे । वोसहकाए विहरेजा, जाव कालस्स पन्जओ ॥३६॥
[उत्त० भ० ३५, गा० १६ ] साघु शुक्ल ध्यान मे मग्न रहे, जप-तप के फलरूप सासारिक सुखो की कामना न करे, सदा अकिञ्चनवृत्ति से रहे तथा मृत्युपर्यन्त काया का ममत्व त्याग कर विचरण करता रहे । जे माहणे खत्तियजायए वा, तहुग्गपुत्तेतह लेच्छई वा । जे पवइए परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थम्भति माणबद्धे ॥४०॥
[सू० श्रु० १, भ० १३, गा० १० ] 'जिसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और जो दूसरे को दी गई भिक्षा का भोक्ता बन गया, वह पहली अवस्था मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रवंश अथवा लिच्छवी आदि किसी भी वश या जाति का हो, किन्तु उसे अपने पूर्व गोत्र के अभिमान मे बंधे रहना नही चाहिये। आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं,
___ सहायमिच्छे निउणत्थवुद्धि । निकेयमिच्छेज विवेगजोगं, समाहिकामे समण तवस्सी ॥४१॥
[उत्त० अ० ३२, गा० ४] समाधि के इच्छुक तपस्वी साधु को परिमित और शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये, निपुणार्थ बुद्धिवाले को अपना साथी रखना