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[श्री महावीर-वचनामृत हे शिष्य ! जिस तरह ग्वाला गौओ के चराने मात्र से उनका स्वामी नही बन जाता अथवा कोपाध्यक्ष धन की सुरक्षा करने मात्र से ही उसका स्वामी नही वन पाता। ठीक उसी तरह तू भी केवल साधु के वेश-वस्त्रादि की रक्षा करने से सावुत्व का अधिकारी नहीं बन सकेगा।
कह न कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीयंती, संकप्पस्स वसं गओ ॥३७॥
[दश० अ० २, गा० १] जो सावक सङ्कल्प-विकल्प के वशीभूत होकर पद-पद पर विषादयुक्त अर्थात् शिथिल हो जाता है और विषय-वासनादि का निवारण नही करता, वह भला श्रमणत्व का पालन किस तरह कर सकेगा ?' तात्पर्य यह है कि वह कदापि नहीं कर सकेगा। न पूयणं चैव मिलोयकामी,
पियमप्पियं कस्मइ णो करेज्जा ।। सम्वे अणट्ठ परिवजयंते,
अणाउले या अकसाइ भिक्खू ॥३८॥
[सू० ध्रु० १, म० १३, गा० २२ ] सावु पूजन और कीर्ति की कामना न करे, किसी को प्रिय अथवा अप्रिय न बनाये। वह सभी प्रकार की अनर्थकारी, प्रवृत्तियों का त्याग करे और भयरहित तया कपायरहित बने ।