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________________ सामान्य साधुधर्म] [१६५ ज उ संगामकालम्मि, नाया सूरपुरंगमा । नो ते पिट्ठमुवेहित्ति, किं परं मरणं सिया ॥३३॥ सू० अ० १, अ० ३, उ० गा०६] परन्तु जो पुरुष लडने मे प्रसिद्ध और शूरो मे अग्रगण्य होते हैं वे पिछली बातों पर कतइ ध्यान नहीं देते। क्योकि वे यह भलीभांति जानते हैं कि मृत्यु से अधिक और क्या होनेवाला है जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्तकोउहलसंपगाडे, कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥३४॥ [उत्त० अ० २०, गा० ४५ ] जो साधु लक्षणशास्त्र तथा स्वानशास्त्र का प्रयोग करता है, सदा निमित्त कुतूहल मे आसक्त रहता है, जन साधारण को आश्चर्य चकित कर आश्रव बढानेवाली विद्याओ से जीवन चलाता है, उसका कर्मफल भोगने के समय कोई शरणभूत नहीं होता। जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पवइए न से ॥३५॥ [दश० भ० ६, गा० १६ ] जो साधु ( घृत, गुड, मिस्री, शक्कर आदि का) सग्रह करना चाहता है, वह वस्तुतः साधु नही, गृहस्थ है। गोवालो भंडवालो वा, जहा तवणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ॥३६|| [उत्त० अ० २२, गा०४६]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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