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[श्री महावीरवचनामृत
___कट या आपत्ति के टूट पड़ने पर ज्ञानी पुत्प प्रायः खेदरहित मन से ऐसा विचार करता है कि निरा मै ही इन कष्टों से पीड़ित नही हूं, किन्तु संसार में दूसरे भी दुःखित है । और जो कष्ट या आपत्तियां सिरपर आती है- उन्हे शान्तिपूर्वक सहन करता है।
एए भो कसिणा फासा, फरुसा दुरहियासया। हत्यी वा सरसंवित्ता, कीवा वस गया गिहं ॥३०॥
[सू० ध्रु० १, सः ३, उ० १, गाः १७] हे शिष्यो ! ये सारे परीपह कष्टदायी और दुःसह है। ऐसी स्थिति मे कायर-पुरुष वाणो के प्रहार से घायल हुए हाथी की तरह भयभीत होकर गृहवास मे चला जाता है।
जहा संगामकालम्मि, पिट्ठओ भीरू पेहइ । वलयं गहणं नूमं, को जाणइ पराजयं ॥३१॥ एवं उ समणा एगे, अबलं नचाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्म, अविकप्पंतिमं सुयं ॥३२॥
[२० अ० १, अ० ३, उः ३, गा०६३] जैसे युद्ध के समय कायर पुरुप क्मिको विजय होगीऐसी सजाबुटांका कन्ता हा हमेगा पोटे की ओर देखता है और क्लिो पल्य (गोल आकार का बड़ा), झाड़ी आदि घना प्रदेश पयवा दुर्गम भाग पर दृष्टि डालता है, वैसे ही कुछ प्रमण अपने को नयम पा पालन करने में असमर्थ पाकर बनागत भय को आगड़ा मे व्याकरण और ज्योतिष आदि को गरण लेते है।
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