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________________ सामान्य साधुधर्म [१८३ कितने अनार्य-पुरुष मिथ्यात्व की भावना मे डूबे हुए राग-द्वेषपूर्वक जान-बूझकर साधुओ को पीडा पहुंचाते है और अपनी आत्मा को दण्डभागी बनाते है। अप्पेगे पलियन्ते सिं, चारो चोरो त्ति सुव्वयं । बन्धन्ति भिक्खुयं वाला, कसायवयणहि य ॥२७॥ [सू० श्रु० १, अ० ३, उ० १, गा० १५] कई अज्ञानी जन विहार करते हुए सुव्रती साधु को यह 'गुप्तचर है' 'यह चोर है' ऐसा कहकर रस्सी आदि से बंधवाकर तथा कटु. . वचनो से पीडा पहुँचा कर कष्ट देते रहते है। तत्थ दंडेण संवीते, मुट्ठिणा अदु फलेण वा । नाईणं सरई वाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥२८॥ [सू० श्रु० १, भ० ३, उ० १, गा० १६ ] ' अनार्य देश के असस्कारी लोग साधु को लाठी, मुक्का अथवा लकड़ी के पटिये आदि से मारते-पीटते है । उस समय अल्प पराक्रमी साधु पुरुष क्रोधवश घर से बाहर निकली हुई तथा वन्धु-बान्धवो का स्मरण करती हुई स्त्री के समान अपने बन्धु-बान्धवो का स्मरण करता है। न वि ता अहसेव लुप्पए, लप्पन्ती लोगंसि पाणिणो । एवं सहिएहि पासए, अनिहे से पुढे हियासए ॥२६॥ । [ सू० श्रु०१, अ० २, उ० १, गा० १३] .
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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