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________________ १८२] [श्री महावीर-वचनामृत अप्पेगे खुधियं भिक्खं, सुणी डंसइ लूसए। तत्थ मन्दा विसीयन्ति, तेउपुट्ठा व पाणिणो ॥२३॥ [सू.सु. १,०३, उ०१, गा०८] भिक्षा के लिये निकले हुए भूखे सावु को जब कोई नर प्राणी -कुत्ता आदि काट खाता है, तब अल्प पराक्रमी साचु पुत्प अग्नि से अलसे गये प्राणी के समान विषाद को प्राप्त होता है। पुट्ठो ३ दसमसगेहि, तणफाससचाइया । न मे दिउ परे लोए. जइ परं मरणं सिया ॥२४॥ [सूः नु० १, १०३, उ० १, गा० १०] डाँस और मच्छर के ढग तथा तृण की गण्या केल्खे स्पर्गको सहन न कर सकनेवाला अल्प पराक्रमी साव पुल्प ऐसा भी सोचने लगता है कि-'मैने परलोक तो प्रत्यक्ष देखा नहीं, विन्तु इस क्र से तो साक्षात् मरण ही दिखाई दे रहा है। संतत्ता केसलोएणं, बंभचेरपराझ्या । .. 'तत्थ मन्दा विसीयन्ति, मच्छा विट्ठा व केयण ॥रशा, [ ध्रुः १, ३, उ० १, गा०१३] केशलोच से पीड़ित एवं ब्रह्मचर्य पालन मे असमर्थ अल्प पराक्रमी साधु पुरुष जाल में फंसी हुई मछली के समान दुःख का अनुभव करता है। आयदण्डसमायारे, मिच्छासंठियभावना । - हरिसप्पओसमावन्ना, केई लूसन्ति ऽनारिया ।।२।। [सुः ध्रु० १, ३, ४० १, गा० १४]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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