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सामान्य साधुधर्म
[१८१ जिस तरह राज्य-भ्रष्ट क्षत्रिय विषाद का अनुभव करता है, ठीक उसी तरह अल्प पराक्रमी साधु पुरुष भी हेमन्त ऋतु के महीने में सर्वा गो को गीत स्पर्श करने पर विषाद का अनुभव करता है।
पुढे गिम्हाहितावेणं, चिमणे सुपिवासिए । तत्थ मन्दा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥२०॥
[सू० अ० १, अ० ३, उ० १, गा०५] ज्यों थोड़े जल मे मछली विषाद का अनुभव करती है, त्यो ही ग्रीष्म ऋतु के अति ताप से तृषापीडित होने पर अल्प पराक्रमी साधु पुरुष भी विषाद का अनुभव करता है।
सया दत्तमणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मत्ता ढुभगा चेर, इच्चाहंसु पुढोजणा ॥२१॥
[सू० अ० १, अ० ३, उ० १, गा० ६] साधुजोवन मे दो गई वस्तु लेना, यह दु:ख सदा रहता है। याचना का परीषह असह्य होता है । सामान्य मनुष्य प्रायः यह कहते पाये जाते है कि 'यह भिक्षु भाग्यहीन है और अपने कर्मों का फल भोग रहा है।
एए सद्दा अचायन्ता, गामेसु नगरेसु वा । तत्थ मन्दा विसीयन्ति, संगामम्मि व भीरुया॥२२॥
[सू० श्रु० १, म० ३, उ० १, गा०७] गाँव और नगरो में इसतरह कहे गये आक्रोशपूर्ण वचनों को सहन न कर सकनेवाला अल्प पराक्रमी साधु पुरुष सग्राम मे गये हुए भीरु पुरुष के समान ही विषाद को प्राप्त होता है ।