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________________ ( २१ ) नही है । दोनो जैन सम्प्रदायों के दार्शनिको ने भी यदि परस्पर मे "एक दूसरे का खण्डन किया तो स्त्री-मुक्ति और केवलि-भुक्ति को लेकर ही किया । इसके सिवाय उन्हें कोई तीसरा मुद्दा नही मिला । इन दो विषयो से सबधित बातो को यदि छोड दिया जाये तो समस्त जैन सम्प्रदायो की वाणी मे आज भी वही एक रूपता मिल सकती है, जो भगवान् महावीर की वाणी मे थी । उदाहरण के लिये श्री धीरजलालजी शोह के द्वारा कुछ आगमो से सकलित इसी श्री महावीर वचनामृत को रख सकते है । इसमे विश्वतन्त्र, सिद्ध जीवो का स्वरूप, ससारी जीवो का स्वरूप, कर्म - वाद, कर्म के प्रकार, दुर्लभ सयोग, मोक्षमार्ग, साधनाक्रम, धर्माचरण, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सामान्य साधु-धर्म, साधु का आचरण, अष्ट-प्रवचनमाता, भिक्षाचरी, भिक्षु की पहचान, सयम की साधना, विनय, कुशिष्य, काम-भोग, प्रमाद, विषय, कषाय, सम्यकत्व, षडावश्यक आदि ४० विषयों का सग्रह है । इनको जैन मात्र ही नही, जैनेतर बन्धु भी बिना किसी संकोच के पढ सकते है । धर्म के सामान्य नियम तो प्रायः समान हुआ करते है । उन्ही - समान नियमो को जीवन मे अपनाने से मनुष्य मे देवत्व का विकास होता है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, बह्मचर्य, अपरिग्रह, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, तप, त्याग आदि ऐसे ही सामान्य नियम है । ये नियम किसी सम्प्रदाय से बद्ध न होकर धर्म सामान्य से सम्बद्ध है । जहाँ ये है वहाँ धर्म अवश्य है और जहाँ ये नही है वहाँ धर्म
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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