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________________ ( २२ ) नहीं है। किसी भी धर्म मे हिंसा, असत्य, चोरी, दुराचार, परिग्रह, क्रोध, मान, मायाचार, लोभ, असयम आदि को धर्म नहीं माना। फिर भी इनको लेकर कोई दंगा फसाद नही होता। इनको मिटाने के लिये किसी को किसी की जान लेते या अपनी जान देते नही देखा जाता। इनका निषेध तो गौन हो गया है और इनके चलते रहते भी जो कुछ चलता रह सकता है वही मुल्य हो गया है। धर्म करना भी न पड़े और धर्मात्माओं मे नाम लिखा जाये, ऐले हो धर्म की आज वोलबाला है। इसी से धर्म और धर्मात्माओं के प्रति गिक्षित समाज की आस्था उन्ती जाती है। इस आस्था को बनाये रखने मे 'श्री महावीर वचनामृत' जैसे संकलन बडे उपयोगी हो सकते है। _भगवान् महावीर कोई स्वयसिद्ध, शुद्ध, बुद्ध अनादि परमात्मा नही थे। वे भी कभी हमी मे से थे। इसलिये उनके वचनामृत उस अनुभव का निचोड है जो उन्होंने अपने एक नही अनेक जीवनों मे अर्जन किया। और उसके द्वारा स्वयं गुद्ध बुद्ध परमात्मा वनकर उस सत्यका साक्षात्कार किया जो इस चराचर विश्व का रहस्य बना हुआ है और फिर अपनी दिव्यवाणो के द्वारा उसे प्रकट क्यिा। भगवान् महावीर का युग देवताओं का युग था। देवताओं का ही डिडिमनाद सर्वत्र सुनाई पड़ता था। उन्हे प्रसन्न करने के लिये बड़े-बड़े यज्ञ क्येि जाते थे। उस समय का मानव देवताओ का गुलाम था । भगवान् महावीर ने उस दासता के बन्धन को काटकर मनुष्य को देवताओ का भी आराध्य बना दिया। और किती स्वयंसिद्ध सर्वशक्तिमान् कर्ता हर्ता-विधाता-ईश्वर की सत्ता से भी इन्कार कर
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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