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[श्री महावीर-वचनामृत पयाया सूरा रणसीसे, संगामम्मि उचट्ठिए । माया पुत्तं न जाणाइ, जएण परिविच्छए ॥१७॥ एवं सेहे वि अप्पुढे, भिक्खायरियाअकोविए । सूरं मन्नइ अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए ॥१८॥
[सू० श्रु० १, भ० ३, उ० १, गा० १२.३] जहाँ तक कायर पुरुष विजयी पुरुष को नही देखता है, वहाँ तक वह अपने को शूर मानता है, परन्तु युद्ध करते समय महारथी श्रीकृष्ण से शिशुपाल ज्यो क्षुब्ध हुआ था, त्यों ही क्षुब्ध होता है।
स्वय को शूरवीर माननेवाला पुरुष सग्राम के अग्रिम मोर्चे पर चला जाता है, किन्तु जब युद्ध आरम्भ होता है तो ऐसी घबराहट फैल जाती है कि माता को अपनी गोद से गिरते बच्चे की भी सुधि नही रहती, तव शत्रुओं के प्रहार से भयभीत बना वह अल्प पराक्रमी पुरुष दीन बन जाता है।
जैसे कायर पुरुष शत्रुओ द्वारा घायल न होवे तवतक अपने आपको गूरवीर मानता है। ठीक वैसे ही भिक्षाचर्या मे अकुशल तथा परीषहों से अस्पृष्ट ऐसा नवदीक्षित मुनि भी कठोर सयम का पालन नहीं करता, तबतक अपने को वीर मानता है।
जया हेमंतमासम्मि, सीयं फुसइ सन्चगं । तत्थ मन्दा विसीयंति, रजहीणा व खत्तिया ॥१६॥
[सू० ध्रु० १, अ० ३, उ० १, गा० ४]