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________________ सामान्य साधुधर्म] [१७६ कण्णसोक्खेहिं सद्देहि, पेमं नाभिनिवेसए । दारुणं कक्कसं फासं, कारण अहियासए ॥१३॥ [ दश० भ० ८, गा० २६] साधु कर्ण-प्रिय शब्दो पर मुग्ध न होवे, साथ ही दारुण और कर्कश स्पर्शो को समभावपूर्वक सहन करे। समणं संजयं दन्तं, हणेजा को वि कत्थइ । नत्थि जीवस्स नासोत्ति, एवं पेहेज संजए ॥१४॥ [उत्त० अ० २, गा० २७ ] इन्द्रियो का दमन करनेवाले संयमी साधु को यदि कोई दुष्ट व्यक्ति किसी प्रकार से सताये अथवा मार-पीट करे तो 'जीव का कभी नाश नही होता' ऐसा विचार करे। खु पिवासं दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरइं भयं । अहियासे अन्वहिओ, देहदुक्खं महाफलं ॥१५॥ [ दश० भ०८, गा० २७] क्षुधा, तृषा, दुःशय्या, ठड, गर्मी, अरति, भय, आदि सभी कष्टो को साधक अदीन भाव से सहन करे। [समभाव से सहन किये गये] दैहिक कष्ट महाफलदायी होते है। सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं न पस्सई । जुझंतं दढधम्माणं, सिसुपालो व महारहं ॥१६॥
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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