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________________ अपरिग्रह] [१७३ वे मक्खन, नमक, तेल, घृत, गुड़ आदि का सग्रह (एक रात्रि के लिए भी) नहीं करते। लोहस्सेस अगुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निहिकामे, गिही पचइये न से ॥१७॥ [ दश० अ० ६, गा०१८] क्योकि इस तरह सश्चित करना, यह एक अथवा अन्य रूप मे लोभ का ही स्पर्श करने जैसा है , अतः जो सग्रह करने की वृत्तिवाले है, वे साधु नही बल्कि (सांसारिक वृत्तियो मे रमे हुए ) गृहस्थ जं पि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । त पि संजमलजठा, धारेन्ति परिहरन्ति य॥१८॥ [दश० अ० ६, गा० १६ ] सयमी पुरुष वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादलुन्छन आदि जो कुछ भी अपने पास रखते है, वह सयम के निर्वाह हेतु ही रखते है ( अतः वह परिग्रह नही है)। किसी समय वे संयम की रक्षा के लिये इनका त्याग भी करते हैं। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥१६॥ [दश० अ० ६, गा० २०] प्राणिमात्र के सरक्षक ज्ञातपुत्र श्रीमहावीर देव ने वस्त्रादि बाह्य
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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