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________________ १७२ ] दीवप्पणट्टे व अणंतमोहे, नेयाउयं दमदमेव ॥ १४ ॥ [ उत्त० अ० ४, गा० ५ ] प्रमादी पुरुष इस लोक मे अथवा परलोक में कही भी धन के वल से अपनी रक्षा नही कर सकता । कारण जिसका ज्ञानदीपक अनन्त मोह से वुझ गया है, ( अत्यन्त अन्धकारपूर्ण बन गया है ) ऐसी आत्मा न्यायमार्ग को देखते हुए भी नही देखते हुए के समान वर्तन करती है । वियाणिया दुक्ख विवडूणं धणं, [ श्री महावीर वचनामृत ममत्तवन्धं च महभयावहं । अणुत्तरं, सुहावहं धम्मधुरं धारेज निव्वाणगुणावहं महं ॥ १५॥ [ उत्त० अ० १६, गा० ६८ ] हे भव्यजनो ! घन को दुःख बढानेवाला, ममत्त्वरूपी वन्चन का कारण तथा महान् भयदाता मानकर उत्तम और महान् धर्मधुरा को धारण करो कि जो सुखदायक और निर्वाण - गुणो को देनेवाली है । विडमुब्भेइमं लोणं, तिल्लं सप्पि च फाणियं । न ते सन्निहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया ॥ १६ ॥ [ दश० अ० ६, गा १७ ] जो लोग भगवान् महावीर के वचनो मे भगवान् महावीर द्वारा बताये हुए सयम मार्ग मे अनुरक्त है अर्थात् विचरण कर रहे हैं,
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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