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________________ प्रहाचर्य] [१६३ ब्रह्मचर्यानुरागी साचक स्त्रियो के मीठे शब्द, प्रेम-रुदन, गीत, हास्य, चित्कार, विलाप, आदि श्रोत्रग्राह्य विषयो का परित्याग कर दे; अर्थात इन्हे कानो पर पड़ने ही न दे।। हासं किहुं रई दप्पं, सहसा वित्तासियाणि य । वंभचेररओ थीणं, नाणुचिन्ते कयाइ वि ॥३८॥ [उत्त० अ० १६, गा०६] ब्रह्मचर्य-प्रेमी साधक ने पूर्वावस्था मे स्त्रियो के साथ हास्य, धूतक्रीडा, गरीर-स्पर्श का आनन्द, स्त्री का मान-मर्दन करने के लिये धारण किये हुए गर्व तया विनोद के लिये की गई सहज चेष्टादि क्रियाओ का जो कुछ अनुभव किया हो, उनका मन से कदापि विचार न करना चाहिये। __मा पेह पुरा-पणामए, अभिकंखे उवहिं धुणित्तए । जे दुमणएहि नो नया, ते जाणंति समाहिमाहियं ॥३६॥ [सू० श्रु० १, अ० २, उ० २, गा० २७] हे प्राणी ! पूर्वानुभूत विषय-भोगों का स्मरण न कर ; न ही इनकी कामना कर । सभी माया-कर्मों को दूर कर। क्योंकि मन को दुष्ट बनानेवाले विषयों द्वारा जो नही झुकता है, वही जिनकथित समाधि को जानता है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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