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[श्री महावीर-वचनात जहा दवग्गी पारधणे वणे,
समारुओ नोवसमं उवेइ । एविन्दियग्गी वि पगामभाइणो,
न भयारिस्स हियाय कस्सई ॥४०॥
[ उत्त० अ० ३२, गा० ११] जैसे अधिक ईंधनवाले वन मे लगी हुई तथा वायु द्वारा प्रेरित दावाग्नि शान्त नही होती, वैसे ही सरस एव अधिक प्रमाण मे आहार करनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियल्पी अग्नि शान्त नही होती।
विभपा इत्यिसंसग्गो, पणीयं रसभायणं । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥४१॥
[दश० अ०८, गा०५७] आत्म-गवेपी-आत्मान्वेषक पुरुष के लिये देहविभूषा, स्त्रीतसर्ग _(सम्पर्क ) तथा रसपूर्ण स्वादिष्ट भोजन तालपुट विष के समान है।
पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवडणं । बंभचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवजए ॥४२॥
[उत्त० अ० १६, गा० ७] ब्रह्मचर्य के अनुरागी सावक को शीघ्र ही मद (उन्मत्तता) बढाने वाले स्निग्च भोजन का सदा के लिये परित्याग कर देना चाहिये।
विवेचन-स्निग्ध अर्थात रसपूर्ण। घी, दूध, दही, तेल, गुड़ और मिठाई, ये सब स्निग्ध पदार्थों मे गिने जाते हैं।