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[श्री महावीर-वचनामृत अदंसणं चेव अपत्थणं च,
अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्साऽऽरियज्झाणजुग्गं,
हियं सया बंभवए रयाणं ॥३॥
[उत्त० अ० ३२, गा० १५] ब्रह्मचर्य मे लीन और धर्म-ध्यान के योग्य साधु स्त्रियो को रागदृष्टि से न देखे, स्त्रियो की अभिलाषा न करे, मन से उनका चिन्तन न करे और वचन से उनकी प्रशसा न करे। यह सब उसके ही हित मे है। जइ तं काहिसी भावं,
जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्धो व हडो,
अद्विअप्पा भविस्ससि ॥३६॥
[उत्त० अ० २२, गा० ४५] हे साधक ! जिन-जिन स्त्रियों पर तेरी दृष्टि पडे, उन सब को भोगने की अभिलाषा करेगा तो वायु से कम्पायमान हड वृक्ष की तरह तू अस्थिर बन जाएगा और अपने चित्त की समाघि खो बैठेगा।
कूइयं रुइयं गोयं, हसियं थणियकंदियं । बंभचररओ थीणं, सोयगेझं विवजए ॥३७॥
[ उत्त० अ० १६, गा०५]