________________
ब्रह्मचर्य ]
अंगपच्चंगसं ठाणं, वंभचेररओ थीणं
चारुल्लवियपेहिगं ।
चक्खुगिज्नं विवज्जए ||३२||
[ उत्त० अ० १६, गा० ४ ]
ब्रह्मचर्य मे अनुराग रखनेवाले साधक को चाहिये कि वह स्त्रियो के अङ्ग प्रत्यग, संस्थान, मधुर भाषण तथा कटाक्ष का रसास्वादन करना छोड दे ।
न रूपलावण्णविलासहासं,
न जंपियं इंगियपेहियं वा ।
[ १६१
इत्थी चित्तंसि निवेसड़ता,
दट्ठे वस्से समणे तवस्सी ||३३||
[ उत्त० भ० ३२, गा० १४ ]
तपस्वी श्रमण स्त्रियो के रूप लावण्य, विलास, हास-परिहास, भाषण - सभाषण, स्नेहचेष्टा अथवा कटाक्षयुक्त दृष्टि को अपने मन मे स्थान न दे अथवा उसे देखने का प्रयास न करे ।
चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दट्ठणं, दिट्ठि पडिसमाहरे ||३४||
[ दश० अ० ८, गा० ५५ ] साधक शृङ्गारपूर्ण चित्रो से सुसज्जित दीवार तथा उत्तम रीति से अलंकृत ऐसी नारी की ओर टकटकी लगाकर देखने का प्रयास न करे । ओर तिसपर भी यदि दृष्टि पड जाय तो उसे सूर्य पर पड़ी दृष्टि की तरह शीघ्र ही हटा ले |
११