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[श्री महावीर-वचनामृत एवं विवेगमायाय,
संवासो नवि कप्पए दविए ॥२६॥
[सू० ध्रु० १, म० ४, उ० १, गा० १०] विषमिश्रित भोजन करनेवाले मनुष्य की तरह ही स्त्री-समागम करनेवाले ब्रह्मचारी को वाद मे बहुत पछताना पडता है। इसलिये प्रारम्भ से ही विवेकी वन, मुमुक्षु आत्मा को स्त्रियों के साथ समागम नही करना चाहिये। जहा बिरालावसहस्स मूले,
न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासी ॥३०॥
[उत्त० अ० ३२, गा० १३] जैसे विल्लियों के वास स्थान के पास रहना चूहों के लिये योग्य नही है, वैसे ही स्त्रियो के निवास स्थान के बीच रहना ब्रह्मचारी के लिये योग्य नहीं है।
जहा कुक्कुडपोअसस्स, निच्चं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थी विग्गहओ भयं ॥३१॥
[दश० भ०८, गा०५४] जिस तरह मुर्गी के बच्चे को बिल्ली मेरा प्राण हरलेगी ऐसा भय सदा बना रहता है, ठीक वैसे ही ब्रह्मचारी को भी नित्य स्त्रीसम्पर्ग में आते हुए अपने ब्रह्मचर्य के भग होने का भय वना रहता है।